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हमेशा सत्ता विरोधी ही रहा है आजमगढ़ का जनादेश
सूरज जायसवाल
आजमगढ़। जिले का जनादेश हमेशा सत्ता विरोधी ही रहा है। पिछले 40 साल से चली आ रही इस परम्परा को यह संसदीय क्षेत्र अभी भी संजोये हुए है। अब देखना यह है कि दो बरस पहले हुए यहा उपचुनाव में सत्तापक्ष यानि भाजपा के उम्मीदवार के रूप में जीत दर्ज कराने वाले भोजपुरी फिल्म अभिनेता दिनेश लाल यादव निरहुआ इस आम चुनाव में यहां का रिकार्ड ध्वस्त कर पाते हैं या नहीं। चुनावी आंकड़ों पर नजर डाला जाय तो यही सच उभरकर सामने आयेगा कि 1984 के बाद से हुए अभी तक के सभी लोकसभा चुनाव मे यहां के लोग सत्तापक्ष के प्रत्याशी को नकारते चले आ रहे हैं। मोदी लहर का असर भी यहां कुछ नहीं कर सका। देश के साथ-साथ पूरे प्रदेश में रामादल की लहर के बावजूद इस जिले की सभी दसो विधानसभा की सीटों पर मौजूदा समय में समाजवादी पार्टी का कब्जा बना हुआ है। वैसे भाजपा के लिए यह जमीन बंजर भी नही है, क्योंकि यहां 2009 में कमल खिल चुका है। सत्ता विरोधी परम्परा के चलते मोदी लहर में यहां कमल खिल नही सका, परन्तु 2014 के चुनाव में इसी जिले की दूसरी लालगंज सुरक्षित लोकसभा सीट ने केशरिया लहराकर आजमगढ की लाज जरूर बचा ली थी। यह अलग बात है कि 2014 के चुनाव में भाजपा के टिकट पर यहां से जीती नीलम सोनकर को 2019 के आम चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था। इस बार भाजपा ने उन्हे इस सीट से तीसरी बार उम्मीदवार बनाया है। इसके साथ ही वह भाजपा के टिकट पर लालगंज सीट से विधानसभा का पिछला चुनाव भी लड़ चुकी हैं।
पिछले 40 साल से सत्ता विरोधी जनादेश में शुमार आजमगढ ने सत्ता का मजा तब चखा, जब यूपी विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बन जाने के कारण सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आजमगढ़ से लोकसभा की अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इस सीट पर हुए उपचुनाव मे भाजपा का यहां कमल खिल गया और सपा के धर्मेंद्र यादव को हराकर भाजपा के निरहुआ ने यहां की सत्ताविरोधी परम्परा को तोड़ते हुए इतिहास रच दिया। आजमगढ़ के संसदीय इतिहास में इसे बड़ा घटनाक्रम ही कहा जायेगा कि देश में भाजपा सरकार रहते वह यहां से पार्टी के सांसद चुन लिए गये। 1984 मे कांग्रेस के टिकट पर जीते डा0 संतोष सिंह के बाद अभी तक यहां से सत्ता पक्ष का कोई भी सांसद नहीं चुना जा सका। वैसे सब मिलाकर आजतक यहां का जनादेश देश की हुकूमत के खिलाफ होता आया है। सिर्फ उपचुनाव के चलते ही हम अपने माननीय को सत्ता की गोंद में बैठे देख रहे है। अब देखना यह है कि उपचुनाव में यहां की परम्परा को तोड़ने वाले दिनेश लाल निरहुआ लोकसभा के इस आम चुनाव में 40 साल की इस ऐतिहासिक संसदीय परम्परा को तोड़ने में कितना कामयाब हो पाते हैं।
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